आरबीआई ने नोटबंदी के प्रभाव को अपने नीतिगत निर्णयों के मामले में ज़रा सा भी महत्व न देने का फैसला किया है। नोटबंदी के बाद बैंकों में साढ़े ग्यारह लाख करोड़ नगद जमा हो चुके हैं, लेकिन उम्मीद के विपरीत आरबीआई ने रेपो रेट ( समय-समय पर बैंकों की ज़रूरत के अनुसार उन्हें आरबीआई से दी जाने वाली राशि पर ब्याज की दर) और रिवर्स रेपो रेट ( ज़रूरत पड़ने पर बैंकों से आरबीआई द्वारा अल्पावधि के लिये ली जाने वाली राशि पर ब्याज की दर) में कोई परिवर्तन नहीं करने का निर्णय लिया है। अर्थात, आरबीआई का यह साफ़ अनुमान है कि आज बैंकों के पास जो इतना रुपया इकट्ठा हो रहा है, वह एक नितांत सामयिक मामला है। इसीलिये नोटबंदी से बैंकों में लाई गई राशि से आरबीआई अपनी नीति में किसी प्रकार के दीर्घकालीन प्रभाव के परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं है। बैंकों में नगदी की भरमार की सामयिक समस्या से निपटने की सारी ज़िम्मेदारी उसने बैंकों के ही सिर पर मढ़ दी है। अब ब्याज की दरों को गिराने अथवा बढ़ाने से जुड़ा सारा जोखिम सभी बैंकों को खुद पर लेना होगा। इसमें आरबीआई की उनको कोई मदद नहीं मिलेगी। आरबीआई ने अभी बिना किसी ब्याज पर बैंकों को उसके पास सीआरआर (कैश रिज़र्व रेशियो) के तौर पर सौ फ़ीसदी राशि जमा करा देने की सुविधा जरूर मुहैय्या कराई है। सुनने में आया था कि आरबीआई ने सरकार को बाज़ार को स्थिर करने के लिये बाज़ार से तीन-चार लाख करोड़ रुपये उठाने की योजना लागू करने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन ऐसी किसी भी मार्केट स्टैबिलाइजेशन स्कीम को लाने के लिये सरकार को संसद की मंज़ूरी की ज़रूरत पड़ेगी। जब मोदी जी खुद इस संसद नामक जगह से भाग रहे हैं, आयकर विधेयक का काँटा अभी अटका हुआ ही है, तब एक और ऐसी वित्तीय स्कीम के लिये संसद में जाने की हिम्मत जुटाना इस सरकार के वश में नहीं है। आरबीआई ने इतना जरूर स्वीकारा है कि नोटबंदी का विकास की गति पर धक्का लगा है, इसकी दर में तेज़ी से गिरावट आयेगी। लेकिन इससे मुद्रा-स्फीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके बारे में उसका कोई आकलन नहीं है। इसीलिये आज के समय में वह अपनी बैंकिंग नीतियों के मामले नोटबंदी के विषय को पूरी तरह से दरकिनार करके चलने में ही अपनी बुद्धिमत्ता मान रही है। नोटबंदी के महीने भर बाद आरबीआई का यह रुख़ मोदी सरकार के नोटबंदी के 'क्रांतिकारी' क़दम के मुँह पर एक बड़ा तमाचा है। सबको अब यही लग रहा है कि अंततोगत्वा यह क़दम भारत की जनता के जीवन में तबाही लाने वाला और एक विकासमान अर्थ-व्यवस्था में अंतर्घात करने वाला क़दम साबित होगा जिसके दुष्प्रभाव से कोई नहीं बचेगा, बैंक भी नहीं। यह भी कहा जा सकता है कि यह एक स्वेच्छाचारी शासक द्वारा अपनी प्रजा का उत्पीड़न करने का एक निष्ठुर खेल भर है।
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